आतिश ना लगा दे कहीं ये बरसात बरस के..
यक़ीं है की नहीं आएँगे मेरे दिलदार तरस के..

दुवाओं में अपना ज़िक्र हर दफ़ा सुन लेती ही होगी..
क्या सुनती हो चीख़ें भी जो निकलती हैं बिलख के..

ना रंज के अब छूती नहीं तेरे हाथों की नरमियाँ..
पर संग सहेली के भी बैठो तो थोड़ा खिसक के..

अश्क़ों से भी ज़्यादा जिस्म पर ज़ख़्मों के निशाँ हैं..
और वो चाहते हैं उनका नाम भी लूँ तो सिसक के..

मिल भी जाओ गर रास्तों पर तो आवाज़ ना देना..
डर है कहीं रो ना दें लिपट कर काँधे से फफक के..

इंतज़ार है किसका शायद दोनों को ख़बर नहीं..
और वो लम्हें चले जा रहें हैं हाथों से छिटक के..

हर शब यही लगता है अब उसे मना ही लूँ शायर..
एक बात जो कब से रूठ कर बैठी है ठिठक के..